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Saturday, February 4, 2023

Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary – Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Vyakhya

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय

जीवन-परिचय – कबीर भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उनकी जन्म-तिथि और जन्म-स्थान के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। बहुमत के अनुसार कबीर का जन्म सन् 1398 में हुआ था। उनके विषय में यह भी कहा जाता है कि वे स्वामी रामानंद के आशीर्वाद के परिणामस्वरूप एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी ने लोक-लाज के भय से नवजात शिशु को काशी में ‘लहरतारा’ नामक तालाब के किनारे पर फेंक दिया। वहाँ से गुज़रते हुए नीरू-नीमा बुनकर दंपती ने शिशु को उठा लिया और उसका पालन-पोषण किया। आगे चलकर यही बालक संत कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कबीर के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था। कुछ लोग शेख तकी को भी कबीर का गुरु मानते हैं। रामानंद के विषय में तो कबीर ने स्वयं कहा है-

काशी में हम प्रकट भए, रामानंद चेताये।
कबीर का विवाह भी हुआ था। उनकी पत्नी का नाम लोई था। कमाल एवं कमाली नामक उनके बेटा-बेटी भी थे। स्वभाव से वैरागी होने के कारण कबीर साधुओं की संगति में रहने लगे। उनका निधन सन् 1518 में हुआ।
रचनाएँ-कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे बहुश्रुत थे। उन्होंने जो कुछ कहा, वह अपने अनुभव के बल पर कहा। एक स्थान पर उन्होंने शास्त्र-ज्ञाता पंडित को कहा भी है –
मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
कबीर की बाणी ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित है। इस रचना में कबीर द्वारा रचित साखी, रमैनी एवं सबद संग्रहीत हैं।

काव्यगत विशेषताएँ-कबीर के काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

(i) समन्वय-भावना – कबीर के समय में हिंदू एवं मुसलमान तथा विभिन्न संप्रदायों में संघर्ष की भावना तीत्र हो चुकी थी। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता तथा विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक ऐसे धर्म की नींव रखी जिस पर मुसलमानों के एकेश्वरवाद, शंकर के अद्वैतवाद, सिद्धों के हठयोग, वैष्णवों की भक्ति एवं सूफ़ियों की प्रेम के पीर का प्रभाव था।

(ii) भगवान के निर्गुण रूप की उपासना – कबीर भगवान के निर्रुण रूप के उपासक थे। उनके भगवान प्रत्येक हददय में वास करते हैं. अतः उन्हें मंदिर-मसजिद में ढूँढ़ना व्यर्थ है। भगवान की भक्ति के लिए आडंबर की अपेक्षा मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्रता की आवश्यकता है-
तन कौ जोगी सब करे, मन कौ बिरला कोई।
सब विधि सह्जै पाइए जो मन जोगी होई ॥

(iii) गुरु का महत्व – कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया है क्योंकि परमात्मा की कृपा होने से पहले गुरु की कृपा का होना आवश्यक है। गुरु ही अपने ज्ञान से शिष्य के अज्ञान को समाप्त करता है। इसलिए वे कहते हैं –

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताय॥

Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Class 11 Hindi Summary

प्रथम पद का सार –

1. पहले पद में कबीरदास ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के धर्माचरण पर करारी चोट की है। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा किए जानेवाले तरह-तरह के आइंबरों का उल्लेख करते हुए उन्हें बुरा-भला कहा है। उनका कहना है कि हिंदू अपनी भक्ति की प्रशंसा करते हैं, चुआचूत में विश्वास करते हैं। वे वेश्यावृत्ति में लगकर स्वयं को बुराइयों के गर्त में ले जाते हैं। मुसलमानों के पीर-औलिया पशु-वध को स्वीकृति देते हैं। मुर्गा-मुर्गी का मांस खाते हैं तथा सगे-संर्यधियों से विवाह करते हैं। हिंदू और मुसलमान दोनो ही एक जैसे हैं; दोनों की कथनी और करनी में अंतर है। कबीर जी का कहना है कि ये दोनों ही गलत रास्ते पर चल रहे हैं अर्थात दोनों के रास्ते पूर्णतः गलत हैं।

द्वितीय पद का सार –

2. दूसरें पद में कबीर ने जीवात्मा की विरह-व्यथा का सजीव चित्र उपस्थित किया है। इसमें विरह-ज्वाला में जलनेवाली जीवात्मा पति रूपी परमात्मा को बुला रही है। वह हर अवस्था में उससे मिलना चाइती है। इस पद में कबि ने परमात्मा को पति और जीवात्मा को पत्नी के रूप में प्रतिपादित किया है। परमात्मा रूपी पति को न मिलने से पत्नी रूपी जीवात्मा की प्रेम-भावना तड़प उठती है। वह भारतीय नारी के समान अपने पति के प्रति एकांतिक प्रेम करती है और उसे पाने के लिए तड़प उठती है। जिस प्रकार किसी प्यासे की प्यास जल पाकर बुझती है, उसी प्रकार कामिनी को पति प्यारा होता है। उसे अपने प्रियतम का मिलन फ्रिय है। वह अपने प्रिय से मिले बिना अत्यंत व्याकुल हो रही है। प्रियतम से मिले बिना उसके प्राण निकल रहे हैं।

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे सप्रसंग व्याख्या

1. अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिली जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह हूव जाई।

शब्दार्थ

  • दोहुन – दोनों, हिंदुओं और मुसलमानों ने।
  • बड़ाई – प्रशंसा।
  • खाला – मौसी।

प्रसंग – प्रस्तुत पद संत कबीरदास के द्वारा रचित है जिसमें उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के द्वारा किए जानेवाले तरह-तरह के आडंबरों का उल्लेख किया है तथा उन्हें बुरा-भला कहा है। उनकी दृष्टि में इन दोनों की धार्मिक राह व्यर्थ है।

व्याख्या – कबीर कहते हैं कि इन हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने ईश्वर की भक्ति रूपी राह को ठीक प्रकार से प्राप्त नहीं किया। इनका भक्ति-मार्ग गलत है। हिंदू सदा अपनी तथा अपनी भक्ति की प्रशंसा करते हैं; छुआछूत में विश्वास करते हैं तथा पानी की गागर को छूने तक नहीं देते। उन्हें लगता है कि किसी के द्वारा उसे छू लेने के बाद वह अपवित्र हो जाएगी। वैसे वे वेश्या के पैरों के पास सो लेते हैं अर्थात् वेश्या-गमन करते हैं लेकिन तब वे अपवित्र नहीं होते। मेंने हिंदुओं की हिंदुआई अच्छी तरह से देख ली है। मुसलमानों के पीर-औलिया पशु-वध को स्वीकृति देते हैं; मुर्गा-मुर्गी का मांस खाते हैं।

अपनी मौसी की बेटी से ही सगाई करके विवाह कर लाते हैं। शादी के अवसर पर वे मांस पकाते हैं। बाहर से किसी जानवर की लाश ले आते हैं; उसे धोकर पकाते हैं। सभी सखियाँ मिलकर खाने बैठती हैं तथा सभी उसकी प्रशंसा करती हैं। मैंने हिंदुओं की हिंदुआई देखी है और मुसलमानों की मुसलमानियत। दोनों ही एक जैसे हैं; दोनों की करनी और कथनी में अंतर है। कबीरदास कहते हैं कि है साधुओ! आप ही बताओ कि ये दोनों किस रास्ते पर चल रहे हैं अर्थात दोनों के रास्ते पूर्ण रूप से गलत हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों के जीवन में अनीति और क्रूता को प्रकट किया है तथा दोनों के भकित-मार्ग पर प्रश्न-चिह्न लगाया है।
  2. खंडनात्मकता का स्वर प्रधान है। बाह्याडंबरों के प्रति अविश्वास की भावना को प्रकट किया गया है।
  3. तद्भव शब्दावली का सटीक और भावानुकूल प्रयोग किया गया है।
  4. अनुप्रास अलंकार का सार्थक प्रयोग किया गया है।
  5. लाक्षणिक प्रयोग प्रभावपूर्ण है।
  6. प्रतीकात्मकता विद्यमान है।
  7. शांत रस प्राधान्य है।

2. बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नीद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब्ब तो बेहाल कदीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥

शब्दार्थ :

  • बालम – पति।
  • आव – आओ।
  • गेह – घर।
  • देह – शरीर।
  • मोकों – मुझे।
  • सनेह – प्रेम।
  • अन्न – अनाज।
  • नीर – पानी।
  • पर – उपकारी – परोपकार करने वाले।
  • भये – हुए।
  • जिव – प्राण।

प्रसंग – प्रस्तुत पद महात्मा कबीर द्वारा रचित है जिसमें विरह-ज्वाला में जलनेवाली जीवात्मा पति रूपी परमात्मा को बुला रही है। वह हर अवस्था में उससे मिलना चाहती है।

व्याख्या – कबीर का कथन है कि जीवात्मा वियोगिनी के रूप में पीड़ा भरे स्वर में कहती है कि हे स्वामी ! तुम अपने घर आ जाओ। तुम्हारे बिना मेरा शरीर परेशान है। सभी मुझेे तुम्हारी पत्ली बतलाते हैं, पर मिलन के अभाव में मुझे इसमें संदेह है। मुझे तो अब शर्म भी आती है। जब पति-पत्नी में परस्पर प्रेम-भाव नहीं प्रकट हुआ तब तक उसे प्रेम किस प्रकार कहा जा सकता है ? जीवात्मा और परमात्मा में अभेद है। जीवात्मा कहती है कि मुझे अपने पति रूपी भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

भगवान के विरह में मुझे अन्न अच्छा नहीं लगता, नींद नहीं आती तथा घर या वन में रहते हुए धैय धारण नहीं होता। जिस प्रकार प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलकर शांति मिलती है तथा प्यासे को जल पीकर, उसी प्रकार मुझेे अपना प्रियतम तथा उसका मिलन प्रिय है। क्या कोई ऐसा परोपकारी है जो भगवान तक मेरी व्यथा को पहुँचा दे। कबीर कहते हैं कि पति परमेश्वर को देखे बिना मेरे प्राण अत्यंत व्याकुल हो रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे उनके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने जीवात्मा की विरह व्यथा का सजीव चित्रण किया है। पति रूपी परमात्मा ही उसके जीवन को सुख-शांति प्रदान कर सकता है। दोनों के मिलन को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए पति-पत्नी का रूपक बहुत सटीक है।
  2. अनुप्रास, प्रस्तुतालंकार, रूपक और उपमा अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  3. प्रतीक विधान और लक्षणा शब्द-शक्ति का पर्याप्त प्रयोग दिखाई देता है।
  4. भक्ति के वियोग पक्ष का निरूपण किया गया है।
  5. भाषा सरल, संगीतबद्ध तथा भावानुकूल है।
  6. भक्ति रस की प्रधानता है।
  7. गीति काव्य की विशेषताएँ विद्यमान हैं।

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